AMAN AJ

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आर्य और काली छड़ी का रहस्य-24

    

    अध्याय-8
    किले में जाने का रास्ता
    भाग-2

    ★★★
    
    जल्द ही तीनो पुस्तकालय में पहुंच गए। पुस्तकालय में पहुंचते ही आर्य और आयुध एक जगह पर रुक गए और हिना आगे बढ़कर किताबों को देखने लगी।
    
    पुस्तकालय में सभी किताबों को श्रेणी बंद रखा गया था। एक समान अक्षरों से शुरू होने वाली किताबें एक साथ थी। जैसे जिन किताबों के शीर्षक अ से शुरू होते थे उन्हें एक अलमारी में रखा गया था, और जिन किताबों के शीर्षक आ से थे उन्हें एक अलमारी में रखा गया था।
    
    हिना तुरंत 'कि' वाली अलमारी की तरफ बढ़ी। वहां पहुंचते ही उसने किताबों के शीर्षक पढ़े और उसमें 'किले का रहस्य' वाली किताब ढुंढी। जल्द ही उसे 'किले का रहस्य' वाली किताब मिल गई थी।
    
    उसने किताब उठाई और तुरंत आर्य और आयुध के पास आ गई। उनके पास वह आकर बोली “अच्छा हुआ मैंने सुबह पुस्तकालय में किताबों के क्रम पर ध्यान दिया था। इस वजह से मुझे किताब जल्दी मिल गई। चलो अभी इसे जल्दी से जल्दी पढें।”
    
    वहां पुस्तकालय में पढ़ने के लिए लकड़ी के मेज और कुर्सियां मौजूद थे। तीनों ही वहां एक जोड़ी कुर्सी और मेज के पास गए और वहां किताब को मेज पर रख दिया। आर्य और आयुध वहां मौजूद कुर्सियों पर बैठ गए। जबकि हिना ने खड़े रहकर ही किताब को खोलो।
    
    हिना ने किताब के पन्नों को पलटना शुरू किया लेकिन यहां एक अलग ही चमत्कार देखने को मिला। किताब एक साउंड स्टोरी थी अर्थात बोलने वाली किताब। पन्ने को खोलते ही कुछ अलग तरह की हरकतें हुई जेसी मशीन में होती है और लाल रोशनी के साथ एक आवाज बाहर आने लगी ।
    
    "इस किले को सन 1122 में आश्रम के मुखिया ईसीनाम ने बनाया था। किले के अंदर जाने के चार चरण है जिसका मुख्य उद्देश्य किले की सुरक्षा को मजबूत करना है ‌ताकि आपातकालीन स्थिति में इस किले का उपयोग आश्रम के लोगों को बचाने के लिए किया जा सके। पर बीते वक्त में इस किले के अंदर खतरनाक दुश्मनों को कैद करके रखा जाने लगा। पहले चरण में किले का दरवाजा आता है जिसे एक खास तरह की ही रोशनी से ही खोला जा सकता है और वह भी तब जब वह रोशनी किले के दरवाजे पर बनी एक खास जगह पर पड़े। जब तक यह दोनों मेल सही नहीं होंगे तब तक किले का दरवाजा नहीं खुलेगा। दूसरे चरण में किले की वह जगह आती है जहां पर जमीन नहीं है अर्थात बिना फर्श का कमरा। यह जगह किले के दो रास्तों को आपस में जोड़ती है। अगर किले में आगे बढ़ना है तो इस जगह को पार करना पड़ेगा। इस जगह को पार करने के लिए उड़ने की कला आनी आवश्यक है। इन दोनों चरणों को पार करने के बाद तीसरा चरण आता है 'मौत का गलियारा'। इस मौत के गलियारे में चप्पे-चप्पे पर ऐसे जाल बिछाए गए हैं जो पलक झपकते ही यमराज के दर्शन करवा दे। इन सब से बचने के बाद चौथा और आखरी चरण आता है नरक की खूंखार आत्माएं। यह खुखांर आत्माएं हर उस जिंदा शख्स को निगल जाती है जो उस किले की ओर आती है। इनके लिए ना तो रोशनी का वफादार कुछ मायने रखते है ना ही अंधेरे के नुमाइंदे और ना ही इन्सान। सब इनके लिए एक समान है। नरक की इन आत्माओं से सिर्फ वही शख्स बच सकता है जिसके पास वह रोशनी हो जिससे दरवाजा खोला जाता है। जब तक वह रोशनी शख्स के हाथ में है तब तक कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता पर अगर वह रोशनी उसके हाथ में नहीं तो उसे बचाने वाला कोई नहीं। इन चारों चरणों के सुरक्षा चक्रों को पार करके ही किले के अंदर जाया जा सकता है।”
    
    इसके बाद आवाज आना बंद हो गई और लाल रोशनी भी गायब हो गई।
    
    आयुध के मुंह से निकला “बाप रे, इतने सारे सुरक्षा चक्कर कैसे तोड़े जाएंगे?”
    
    वही आर्य ने कहा “और हम उस रोशनी का बंदोबस्त कैसे करेंगे जो दरवाजा खोलने के लिए चाहिए?”
    
    हिना अभी भी कुछ सोच रही थी। सोचते हुए वह बोली “रोशनी का बंदोबस्त हो जाएगा। आचार्य वर्धन की छड़ पर लगी रोशनी ही वो रोशनी है जिसकी यहां बात हो रही है। सफेद रोशनी। इन दोनों छड़ीयों को एक तरफ कर दिया जाए तो आचार्य वर्धन की छड़ भी कम नहीं। उनकी छड़ को आश्रम के पुराने आचार्यों ने बनाया था, तब जब उन्हें पता चला शैतानों की ओर से छड़ों का निर्माण किया जा रहा है। एक छड़ के मुकाबले के लिए उसके सामने छड़ का आना जरूरी है। पुराने आचार्य द्वारा बनाई गई छड़ में उसी रोशनी का इस्तेमाल किया गया है जिसका इस्तेमाल उन दोनों ही छड़ों में हुआ था। बस फर्क सिर्फ इतना है कि उनकी छड़ी में सिर्फ सफेद रोशनी है। लाल रोशनी और काली रोशनी बुराई का प्रतीक है तो उनका मिश्रण नहीं किया गया।”
    
    “मगर आचार्य वर्धन तो यहां आश्रम में ही नहीं है...” आर्य उसके बात सुनने के बाद बोला “और अगर वह नहीं है तो उनकी छड़ कैसे होगी?”
    
    “नहीं आर्य...” हिना ने तुरंत अपनी मोटी आंखें उसकी तरफ की “आचार्य वर्धन कभी भी आश्रम से बाहर अपनी छड़ को नहीं लेकर जाते। जाने से पहले वह उन्हें यही आश्रम में रखकर जाते हैं।”
    
    “क्या सच में!!” आयुध अपनी जगह से खड़ा हो गया “अगर हमें अचार्य वर्धन की छड़ मिल गई तो हमारा काम हो जाएगा। हम किले में चले जाएंगे। हिना क्या तुम जानती हो उनकी छड़ कहां है?”
    
    “मेरे ख्याल से उनके कमरे में ही होनी चाहिए... इसके अलावा वो उन्हें कहां रखेंगे...!!”
    
    आयुध अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगा। उसने हिना को कहा “हिना तुम आर्य के साथ जाओ और अचार्य वर्धन के कमरे से वो छड़ लेकर आओ। और तब तक...तब तक मैं एक ऐसी चीज लेकर आता हूं जो हमारे बहुत काम आने वाली है।”
    
    हिना ने अपनी कमर पर हाथ रखे “अब तुम ऐसा क्या लाने वाले हो?”
    
    आयुध कुर्सी को एक तरफ कर बाहर जाने लगा। बाहर जाते जाते उसने कहा “यह तुम लोगों के लिए सरप्राइज रहेगा। जल्द ही वापस किले के बाहर मिलते हैं।” और वह निकल गया। वहीं हिना ने भी किताब को वापस अलमारी में रखा और आर्य के साथ आचार्य वर्धन के कमरे की ओर चल पड़ी।
    
    ★★★
    
    आर्य और हिना जिस कमरे के सामने थे वह कुटिया जैसा दिखाई दे रहा था। कुटिया भी बाहर से देखने पर एक झोपड़ी जेसी लग रही थी। उसके चारों ओर एक छोटी सी लकड़ी की बाड़़ थी जो हिमालय के सर्द बर्फिले मौसम के कारण दब चुकी था। कुटिया की दीवारें दोहरी थी जो बाहर की ठंड से बचाव के लिए बनाई गई थी। पहली दीवार बांस की लकड़ियों से बनी हुई थी जबकि दुसरी दीवार ईंटों की थी। कुटिया की छत त्रिकोणी और पत्तों की बनी हुई थी जिसके ऊपर कहीं-कहीं बर्फ दिखाई दे रही थी।
    
    आर्य और हिना आसपास देखते हुए धीरे धीरे कुटिया के पास गए। कुटिया के बाहर ही दाईं ओर हिमालय में पाया जाने वाला एक अजीब किस्म का जानवर बंधा हुआ था जो बकरी जैसा दिख रहा था पर बकरी नहीं थी। उसके बाल हरे रंग के थे और मूंह भी चौड़ा और उभरा हुआ था। आंखों को हरे रंग के बालों ने पूरी तरह से ढक रखा था। एक बार तो देखने पर ऐसा अहसास हो रहा था कि उसकी आंखें हे ही नहीं। ऐसा ही कुछ कुछ हाल उसके कानों का था वह भी पूरी तरह उसके बालों से ढके हुए थे।
    
    हिना जानवर को देखते हुए बोली “हमारे आचार्य वर्धन को भी पता नहीं कैसे-कैसे जानवर पालने का शौक है।”
    
    आर्य और हिना खुद को उस जानवर के ध्यान से बचाते हुए आचार्य वर्धन की कुटिया के अंदर चले गए।
    
    कुटिया के अंदर जाते ही उन्हें एक अलग ही गर्माहट का एहसास हुआ। बाहर जितनी ज्यादा ठंड थी अंदर उतनी ही ज्यादा गर्मी। कुटिया की दोहरी दिवार इसे अंदर से ज्यादा गर्म बनाए रखने का कारण थी। दीवारों पर जगह-जगह जलती हुई मशाले टंगी हुई थी जो बाहर से आने वाले ठंडे तापमान को संतुलित कर रही थी।
    
    आर्य ने अपनी नजरें कुटिया के अंदर आसपास दौड़ाई।
    
    कुटिया में देखने को कुछ खास नहीं था। एक और छोटा सा पलंग था जिस पर बड़े-बड़े कंबल बिछे हुए थे। पास ही एक छोटा सा मटका पड़ा था जिसके नीचे बुझे हुए कोयले थे जो शायद मटके के पानी को गर्म रखने के लिए रखे गए थे। इसी पलंग से थोड़ी दूर दीवार पर एक ओम नाम निशान बना हुआ था जिसके पास कुछ अगरबत्तीया जल रही थी।
    
    इसी कुटिया के अंदर दूसरी ओर दो छोटे बैठने के लिए बने मुडे थे। (मुडे - बैठने के लिए डमरू जैसे आकार की बनी कुर्सी होती है जो सरकनों के डंडो से बनाई जाती है। सरकनो के यह डडें रेगिस्तान एरिया में पाए जाते हैं।) उन मुडो के बीचो बीच लकड़ी का एक टेबल भी था जिस पर दो कुल्हड़ पड़े हुए थे । ( कुल्हड़ - चाय पीने के लिए बना मिट्टी का बर्तन )
   
    हिना भी अपनी आंखों से पूरे कमरे का जायजा ले रही थी। हिना ने कमरे को मोटी मोटी आंखों से देखते हुए कहा “आचार्य वर्धन की छड़ को तो यहीं कमरे में होना चाहिए। मगर वह मुझे कहीं दिख क्यों नहीं रही।”
    
    आर्य ने अंदाजा लगाते हुए कहा “तुमने कहा था ना वह ताकतवर है, ऐसे में हो सकता है उन्होंने छड़ कों कहीं और रखा हो? किसी सुरक्षित जगह पर?”
    
    “आचार्य वर्धन ऐसा नहीं करते..” हिना ने जवाब दिया “मतलब वह बाहर की सुरक्षित जगहों पर विश्वास नहीं करते। अगर उन्होंने उसे किसी सुरक्षित जगह पर रखा होगा तो वह यहीं कहीं होगी। इसी आश्रम में कहीं। और उनकी इसी कुटिया में।”
    
    कुटिया के अंदर दरवाजे के सामने की दिवार पर एक बड़ा सा मिट्टी का गुंबद जैसा आकार रखने वाला पिरामिड बना हुआ था। अचानक आर्य का ध्यान उस तरफ गया।
    
    “शायद मुझे आचार्य वर्धन की खुफिया जगह मिल गई” आर्य ने खुद से कहा ओर वो उस गुंबद की ओर बढ़ने लगा। उसके गुबदं की ओर जाने के कारण हिना का ध्यान भी उस तरफ चला गया था।
    
    गुबंद के आस पास एक सोने की चैन बंधी हुई थी जिस का एक सिरा पलंग की ओर जा रहा था। गुबंद के ऊपर एक बटन के आकार जैसा यंत्र था जहां चैन का दूसरा सिरा लगा हुआ था। आर्य ने बिना ज्यादा सोचे विचारे उस चैन को खींच दिया जिससे गूबंद के ऊपर लगा बटन दब गया।
    
    आस पास कोई हलचल नहीं हुई और ना ही कोई ऐसी घटना जिसका संबंध उस छड़ से हो। हिना कमरे में चारों तरफ देख रही थी। आर्य ने भी इधर-उधर देखा, यह देखने के लिए कि आखिर इस बटन का संबंध किससे है, पर सब चीजे सामान्य थी।
    
    अचानक चरमराहट की एक आवाज के साथ सामने वाली दीवार में हलचल होने लगी और दीवार का कुछ हिस्सा अलग होकर एक दरवाजे में बदल गया। आर्य और हिना तेजी से पीछे हो गए। दोनों ही अपने सामने के उस दरवाजे को देख रहे थे। दरवाजा बहुत छोटा था पर वह धीरे-धीरे निकल कर बाहर आ रहा था। आर्य ने उस दरवाजे को गौर से देखा “अचार्य वर्धन के दिमाग को मानना पड़ेगा।”
    
    हिना दरवाजे की तरफ गौर से देखते हुए बोली “यकीनन, तभी तो उन के दम पर पूरा आश्रम चल रहा है।”
    
    आर्य ने वहां कमरे से एक मशाल उठा ली। इसके बाद वह हिना को बोला “चलो अंदर चले...”
    
     दरवाजे के अंदर दोनों ही एक ढलान वाले रास्ते पर नीचे उतरे जहां उन्हें सिवाय हल्की रोशनी के ओर कुछ भी दिखाई नहीं दिया। आसपास देखने से पता चल रहा था कि वह एक अंधेरे गलियारे में है जिसकी लंबाई काफी ज्यादा थी। यह एक लंबा और संकरा गलियारा था जो अक्सर पुराने जमाने की गुफाओं में पाया जाता है।
    
    शुरुआत में गलियारे की चोड़ाई ज्यादा थी पर आर्य और हिना जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे थे वैसे वैसे गलियारे की चौड़ाई लगातार कम हो रही थी। कुछ देर और चलने के बाद गलियारा काफी संकरा और पतला हो गया। गलियारा इतना पतला था की आर्य और हिना साथ साथ में एक दूसरे से टकराने लगे थे। और आगे चलने पर उन्हें एक दूसरे के आगे पीछे होना पड़ा। अब आगे के रास्ते में मात्र एक आदमी के चलने जितनी जगह थी। दोनों ही आसपास की पथरीली गलियारे की दीवारों से टकराते हुए लगातार आगे बढ़ रहे थे।
    
    आर्य के हाथों में जल रही एक छोटी सी मशाल लगातार उसे आगे का रास्ता दिखा रही थी। आर्य के चेहरे पर शक और शिकन की लहरें साफ देखी जा सकती थी और यह बात भी भली-भांति पता लग रही थी कि उसके मन में यही विचार चल रहा है कि यह गलियारा कहां खत्म होगा?
    
    लगभग 4 से 5 मिनट चलने के बाद गलियारा फिर से चौड़ा होने लगा और उसमें उपलब्ध रोशनी की मात्रा में भी बढ़ने लगी। पहले जहां गलियारे में हल्की रोशनी थी वहीं अब गलियारो में प्राप्त रोशनी नजर आ रही थी। रोशनी का स्त्रोत गलियारे की दीवारों पर लगे जादुई लेंप थे।‌ इस तरह के कुछ लैंप आश्रम में अन्य जगहों के सामने भी लगे हुए थे।
    
    गलियारे में आगे का सफर खत्म हुआ। अंत में आर्य और हिना एक कमरे में पहुंच गए जो गलियारे कि तरह ही पथरीला था। यह वही खुफिया जगह थी जहां अचार्य वर्धन अपनी छड़ रखते थे।
    
    कमरा किसी गुफा के आखिरी छोर जैसा प्रतीत हो रहा था । जगह जगह कटे हुए पत्थर, और उन पर टंगे रोशनी के लैंप थें। गुफा जैसे दिखने वाले कमरे के बीचो बीच एक छोटा सा ताबूत जैसा बक्सा रखा गया था। बक्से के आसपास वैसी ही चैन बंधी हुई थी जैसी चैन उस गुबंद के ऊपर थी।
    
    हिना बोली “मुझे तो समझ में नहीं आ रहा आचार्य ने इस जगह को कैसे बनाया होगा। जरूर उन्होंने जादुई मंत्रों का इस्तेमाल कर इस जगह का निर्माण किया होगा।”
    
    यह सुनकर आर्य ने कहा “जरूरी नहीं। हो सकता है यह जगह पहले से ही यहां मौजूद हो, फिर यहां के जो गलियारे हैं उनके दरारें देखकर यही लगता है कि इसका निर्माण प्राकृतिक तौर पर हुआ है।”
  
      “कुछ भी हो क्या फर्क पड़ता है... हमें शायद अब वह काम करना चाहिए जिसके लिए हम यहां आए हैं..” हिना ने कहकर ध्यान बदल दिया।
    
    दोनों ही वापस बक्से की तरफ देखने लगे। बक्सा काफी पुराना था। बक्से के ऊपर कुछ पुरानी कलाकृतियां बनी हुई थी जो किसी खास तरह के निशान थे।
    
    आर्य ने इस बक्से के ऊपर बंदी चैन को गौर से देखा। यह चैन दो आकृतियों को जोड़ रही थी। देखने से साफ पता लग रहा था कि यह चैन इसे खोलने की चाबी है। आर्य ने बिना देरी किए आगे बढ़कर चेन को पकड़ कर खींच दिया।
    
    बक्से में एक टक की आवाज हुई और वह एक यांत्रिक मशीन की तरह खुद में बदलाव करने लगा। उसके चारों कोनों से एक उभरता हुआ आकार बाहर निकला। बीच की आकृतियां घूमते हुए अंदर धसने लगी। कोनो पर बने अजीब से निशान भी बाहर की ओर निकलने लगे। यह प्रक्रिया कुछ देर तक चलती रही और अंत में उस पूरे बक्से के अंदर से पत्थर की बनी एक परपाट्टी बाहर आ गई जिसके ऊपर छड़ रखी हुई थी।
    
    हिना और आर्य दोनों के चेहरे पर उस छड़ को देखकर खुशी आ गई।
    
    परपाट्टी अजीब तरह की थी। उसके एक सिरे पर गहरा धंसा हुआ गड्ढा था जहां छड़ का चमकता हुआ हिस्सा था और बाकी के हिस्सों में छोटी नाली जेसी जगहा थी जहां उसका लकड़ी वाला सिरा था। 
    
    आर्य आगे था तो उसने छड़ी उठा ली। इसके बाद उसने खुशी से हिना को देखा और उसे भी छड़ी दिखाइए। छड़ी मिलने के बाद दोनों ही वापस बाहर की तरफ चल दिए। उन्हें अब किले के पास जाना था।
    
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